Friday, March 31, 2017

मंज़िल से दूर















न जाने क्यूँ
हो रहा कुछ ऐसा बार बार
जा नहीं पाता
एक सीमित घेरे के पार

अवसरों से हाथ मिलाता हूँ
फसल नई उगाता हूँ
पर फिर एकाकीपन में
चुप चाप खड़ा हो जाता हूँ

अपेक्षाओं के नए नए तीर चलाता हूँ
निशाने पर खुदको ही खड़ा पाता हूँ
घायल होते जाने होने का दर्द जारी
आंसू छुपा कर फिर फिर मुस्कुराता हूँ

अब मंज़िल से दूर रह रह कर
इस तरह कसमसाता हूँ
 घर से बाहर एक नया कदम
उठाने में घबराता हूँ

न जाने क्यों
हो रहा बार बार
फिसलता जाए है
मुझसे विस्तार
ये जड़ता की मार
ये मूढ़ता का वार
सब लगे  निस्सार
कहो कैसे पाऊं सार


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका

Friday, March 24, 2017

कविता की गोद में


एक दिन
जब बढ़ने लगता है
ये अहसास
की हर अनुभव पर
एक 'अंतिम तिथि' लिखी है
जैसे
बाजार से दूध लाओ
तो उसे एक निश्चित तिथि से पहले
प्रयुक्त करने का संकेत अंकित होता है

वैसे ही
हर ख्वाब, हर सपने, हर चिंतन के प्रयोग की
कोई न कोई अंतिम तिथि है

तब
एक बारगी
हड़बड़ी में सब कुछ
जल्दी जल्दी ख़त्म कर लेने की व्यग्रता
और फिर
अपनी अक्षमता
और फिर निष्क्रियता
और फिर नए सिरे से संतुलन की तलाश
चुकते चुकते
चूकने से बचने का
एक और प्रयास

कविता की गोद में
बैठ
अपने आप को लाड लड़ाता हूँ
क्षितिज को थपथपाता हूँ
असीम को साथ खेलने बुलाता हूँ

ये कैसा द्वार खोल देती कविता
 जिसके उस पर
मैं पूरी तरह नया

 निश्छल सौंदर्य को छूकर
हर 'अंतिम तिथि' से परे
क्या शाश्वत हो जाता हूँ?

अब ये सोच कर मुस्कुराता हूँ
की सब कुछ नाप लेने की ज़िद में
मैं स्वयं ही अपने लिए
एक 'अंतिम तिथि' निश्चित करता जाता हूँ

इस पार  रहूँ
तो 'अमिट' हूँ
पर अनजाने में
कविता को झुठलाता हूँ
और
नुकीले प्रश्न उगा कर
उस पार जाता हूँ
लहूलुहान होता जाता हूँ

ये कौन झूला रहा है मुझे
विध्वंस और सृजन के बीच
देखता हूँ
तो देखते देखते
अनंत से आँख मिलाता हूँ

फिर मुस्कुराता हूँ
कविता को कृतज्ञता से देखता
अपने कवि होने पर धन्य हुआ
सबके लिए प्यार लुटाता हूँ

अशोक व्यास
न्यूयार्क अमेरिका
२४ मार्च २०१७


















टालता हूँ जीना
दिन दिन
जाने अनजाने
देख कर
अनदेखा कर देता
जाने पहचाने रास्ते

किसी एक दिन की
प्रतीक्षा में
सुरक्षित रखे सपने
न जाने कब
धीरे धीरे
पीले होकर
झड़ने लगते हैं

टालता हूँ जीना
कभी प्रमाद में
कभी अवसाद में
कभी टूटे सपनो
की याद में

और धीरे धीरे
हो लेता हूँ वह मनुष्य
जो मुझे नहीं होना था
जो मैं नहीं हूँ सचमुच

धीरे धीरे
डर और असफलता के बीच
सहानुभूति का कटोरा लिए
निकलता हूँ
जब अपनों के बीच
अनायास
अपरिचित  हो जाते हैं सब
क्योंकि वे मिलते हैं
उस मनुष्य से
जो मैं नहीं हूँ

टालता हूँ जीना
क्यों की भूल जाता हूँ
हूँ कौन मैं ?


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२४ मार्च २०१७ 

सुंदर मौन की गाथा

   है कुछ बात दिखती नहीं जो  पर करती है असर  ऐसी की जो दीखता है  इसी से होता मुखर  है कुछ बात जिसे बनाने  बैठता दिन -...